रमजान और मासुम बच्चों का रोजा Ramadan and the fasting of innocent children
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रमजान के रोजे अल्लाह पाक ने उस हर शख्स याने व्यक्ती पर फर्ज किया है, जिसने कलमा तय्यबा पढा हो| और एक अल्लाह होने कि गवाही दि हो, याने एकेश्वर पर विश्वास किया है| रमजान के रोजे फ़र्ज है, इसलिये रोजे नही रखने कि इजाजत किसी भी शख्स को नही| याने फ़र्ज रोजे कि माफी नही|
अलबत्ता जो भी व्यक्ती बिमार है, या फ़िर उस
व्यक्ती में रोजा रखने कि जीसमानी याने शारीरिक शक्ती ना हो तो या फ़िर कोई शरई उजर
हो तो अलग बात है|
मासुम बच्चों का रोजा
रोजा फर्ज नही होने बावजुद भी मुस्लिम समुदाय के
मासुम बच्चों में रोजा रखने कि गजब कि चाहत दिखाई देती है| यह उन मासुम और नन्हे बच्चों
के उपर किया गया संस्कार कहे, या फ़िर उनका शौख| रोजा रखने कि जिद्द और दिल से शौख
के कारन मासुम और नन्हे बच्चे अपने जिंदगी का पहला रोजा रखते है|
मासुम बच्चे जब रोजा रखने कि इच्छा अपने
घर के बडे जिम्मेदार या फ़िर माता-पिता के सामने जताते है तो| बच्चों के मां-बाप उन
नन्हे बच्चों को सहर का खाना खाने के लिये सुबह-सवेरे निंद से जगाते है|सहर उसे
कहते है, जो रोजा रखने के लिये जीसमानी ताकत याने शारीरिक शक्ती और उर्जा के लिये
सुबह तडके 3:00 बजे से लेकर 4:30 बजे तक के आस-पास यह समय होता है|
सहर करने के बाद से घर के बडे लोग बच्चे से दिन
भर कि नमाजे अपने साथ लेकर पढते है| उस मासुम और नन्हे रोजेदार को साथ लेकर
कुरआन-ए-पाक कि तिलावत करते है| उस मासुम रोजेदार को लेकर अल्लाह का जिक्र करते है,
याने अल्लाह पाक कि तारीफ करने वाले कलमात पढते रहते है| इस तरह मासुम और नन्हे
रोजेदार का समय गुजरने लगता है| दोपहेर के बाद मासुम रोजेदार के दिल बहलाई के लिये
उसके नन्हे हातों के उपर महेंदी सजाई जाती है| इसी तरह मासुम और नन्हे बच्चे का
समय गुजर जाता है|
दिन का सुरज ढलते देख मासुम रोजेदार के
चेहरे पर रौनक आने लगती है, के अब जल्द हि रोजा छोडने का समय निकट आ गया है| मासुम
रोजेदार के चेहरे पर गजब का उत्साह और ख़ुशी झलकने लगती है| यह समय सभी के लिये
निहारने जैसा होता है| मासुम और नन्हे बच्चे का पहला कामयाब रोजा देख कर घर वालो
के अंदर भी एक प्रकार कि ख़ुशी झलकने लगती है|
अब मासुम और नन्हे रोजेदार कि नजरे घडी
के उपर गडी रहती है, के अब इंतेजार खत्म हो गया है| देखते हि देखते रोजा इफ्तार
करने का याने रोजा छोडने का समय आता है| यह समय मासुम रोजेदार के घर में बहोत ख़ुशी
और जश्न का माहोल बन जाता है|
मासुम और नन्हे के जिंदगी के पहले रोजे के
इफ्तार के अवसर पर अपनी आर्थीक परीस्थिती के अनुसार, घर के बडे अपने सगे-रिश्तेदार
लोगों को, निकट के पडोसी और दोस्तों को रोजा इफ्तारी का नेवता देते है| याने दावत
देते है|
मासुम रोजेदार को इफ्तार के लिये थंडी लस्सी
और थंडा शरबत दिया जाता है| जिसे पि कर वह अपनी जिंदगी के पहले रोजे कि इफ्तार
करता है| और ख़ुशी महसूस करता है|
लस्सी और शरबत से पहले मासुम रोजेदारो को
जिम्मेदार माता पिता अपने हाथो से पेंडखजुर खिलाते है| पेंडखजुर खा कर इफ्तार करना
सुन्नत है| सुन्नत वह है जिसे पैगंबर मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैही व सल्लम ने किया
हो|
रोजा इफ्तारी के बाद मासुम रोजेदार के
परिवार के सदस्य और घर पर आए हुवे सभी महमान नन्हे रोजेदार के गले में फुल कि
मालां पहनाते है| और नन्हे रोजेदार को तोहफा याने उपहार भी देते है|
रमजान में मुस्लिम महिलाओं
का योगदान
रमजान महीने कि फ़जीलत याने महानता को कोई भी
लिखने वाला लेखक कम शब्दों में नही लिख सकता| आप सभी पाठकों को रमजान के हर एक
पहेलु को अच्छे से और विस्तार से बताने का मेरा पुरा प्रयास है| और यह मेरी सीधे
और सरल तरीके से सटीक अंदाज में लिखने कि कोशीश है|
"बहोत सारे पहेलु पर इंटरनेट पर विस्तार से जानकारी
मिलती है, लेकीन मुस्लीम महिलाओं के बारे में जानकारी मिलना बहोत मुश्किल है| और
वो भी रमजान महीने में तो ना मुमकिन है| मुस्लीम महिलाओं के योगदान को मुझ जैसे
ब्लॉगर से भुला जाना भला कैसे हो सकता है| इसीलिये रमजान महीने में मुस्लीम
महिलाओं के योगदान का जिक्र करना मै अपनी
निजी जिम्मेदारी समझता हूं|"
रमजान में सबसे बडा योगदान वास्तव में
मुस्लीम महिलाओं का हि है| हम इस बात का जिक्र इसलिये भी कर रहे है, के मुस्लीम
महिलायें अपने उपर फर्ज किया गया रोजा भी रखती है| और साथ हि घर के अफ्राद याने
परिवार के सभी सदस्यो के रोजे का इंतेजाम भी अच्छे से कर लेती है|
रमजान महीने में मुस्लीम महिलायें रोजा रखने के
लिये तैयार किये जानेवाली सहर का ताजा पकवान करने के लिये सुबह तडके 2:00 बजे से
हि मिठी निंद छोड कर जाग जाती है| क्यों कि रमजान का रोजा रखने के लिये सहर के
खाने का पकवान महिलाओं को हि करना पढता है| महिलायें अपनी मिठी निंद कि क़ुर्बानि
दे कर घर के सभी अफ्राद याने व्यक्ती के लिये रसोई-घर में ताजा-तरिन खाना तैयार
करती है| और सबको परोस कर साथ खुद भी सहेरी के लिये बैठ जाती है|
रमजान में रोजा रखने के लिये घर के पुरुष
सुबह कि अपनी जरुरीयात से फारिग हो कर सीधे सहर करने के लिये दस्तरख्वान पर बैठ जाते
है| तो उन्हे ताजा-तरीन खाने का जायेखा चखने मिलता है|
महिलाओं का योगदान अभी यहिं पर खत्म नही होता
है, बल्की दिन भर के घर के दैनिक कामो को अंजाम दे कर, छोटे बच्चों के जिम्मेदारी
पुरी कर के फ़िर से रोजा इफ्तार के खाने कि भी जिम्मेदारी ब खुबी दिल के गहेराईयों
से निभाती है| यह नही के महिलायें यह सब काम और जीम्मेदारी निभाने के लिये मजबुर
कि जाती है, बल्की महिलायें यह काम बडे शौख से खिदमत समझ कर इन सब कामो को अंजाम
देती है|
"महिलाओं के इस खिदमत और योगदान को नजरन्दाज
करना मुझ जैसे ब्लॉगर को बिलकुल भी शोभा नही देता|"
लेखक/संपादक: जर्नलिस्ट मुजीब जमीनदार
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