पत्रकारिता कैसी करे? How to do journalism?
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क्या पत्रकार और मीडिया अपनी
जिम्मेदारियों और कर्तव्यों से किनारा कर रहे हैं?
मराठी पत्रकारिता के मूर्तिकार बालशास्त्री जाम्भेकर की स्मृति को प्रणाम
! और मेरे सभी पत्रकार मित्रों और प्रिय पाठकों को दर्पण दिन के अवसर पर
शुभकामनाएं!
मित्रों, मैं आज समझता हूं कि पूरे देश में असामाजिक
तत्व बड़े पैमाने पर व्याप्त हैं। गली-मुहल्ले से लेकर दिल्ली तक, ग्रामीण से शहरी इलाकों में, समाज को जातियों में विभाजित किया गया है।
दे में हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, और कट्टरता व्याप्त है। भय
का माहौल बनाया गया है। क्या समाज को इस तरह के बिखरे हुए राज्य में रखने के लिए
खाद का उपयोग किया जाता है? इसे समझना बहुत जरूरी है। समय
रहते इस पर अंकुश लगाने की जरूरत है।
यदि सामाजिक कार्यकर्ता नींद की आड़ में चुप रहते हैं, अगर अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वाले पत्रकार अपने लेखन को
ढंकते हैं, अगर विचारक मुंह में अंगुली रखकर चुप रहते हैं, तो समाज और देश में महान संकट का डर
बना रहेगा। क्या ऐसा उचित है?
राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों ने इस सब पर अपनी पकड़
ढीली कर दी है और न्यायपालिका पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं?
ऐसे अशांत वातावरण में, विभाजित
समाज को एकजुट करने और पूरे देश को एकजुट करने का पवित्र कार्य और जिम्मेदारी
निश्चित रूप से उन पत्रकारों और मीडिया पर गिर गई है जिन्हें लोकतंत्र का चौथा
स्तंभ माना जाता है। पत्रकारों के लिए इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को बड़े दिल से
स्वीकार करने का यह सही और वास्तविक समय है।
जिम्मेदारी टल नहीं जाएगी?
लेकिन
समाज को एकजुट करने और अन्याय के खिलाफ लिखने का साहस बनाएं रखने की जिम्मेदारी को
भूलते हुए, वे भ्रष्ट अधिकारियों और भ्रष्ट नेताओं के करीब होने को ही धन्यता मानते हैं। पत्रकारों
को यह नहीं भूलना चाहिए कि समाज की इस पर गहरी नजर है।
पत्रकारों और मीडिया की विश्वसनीयता ?
क्या यह सच है कि हम मानते
हैं कि समाचार पत्र और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया समाज का दर्पण हैं? और हम और समाज अखबारों और
मीडिया में समाज को प्रतिबिंबित करते हैं? किसी-किसी को इस बारे में
कुछ संदेह है! समाचार लिखने से पहले, इसकी प्रामाणिकता को
सत्यापित करने की आवश्यकता होती है। लेकिन ऐसा कहा जाता है!, यह सुनाई देता है। और पूछताछ और विस्मयादिबोधक चिन्ह का उपयोग
किया जाता है। एक डर है कि ऐसा करने से पत्रकारों, अखबारों और मीडिया की विश्वसनीयता खो जाएगी! किसी
भी समय गलत आधार पर समाचार प्रकाशित करने के लिए अदालत में घसीटा जाना शर्म की बात
हो सकती है। और यह पत्रकारों और समाचार पत्रों और समाचार चैनलों के
भविष्य के लिए घातक हो सकता है।
मेरा यह नहीं मानना है कि पत्रकारों को कायर होना चाहिए। बल्की
पत्रकारों को तो निडर होना चाहिए, लेखन से निकलने वाला हर शब्द
समाज के दिमाग में उतरना चाहिए। लेकिन मेरा यह कहना है, के सत्यापन के बाद ही समाचार प्रकाशित किया जाना चाहिए !
क्या
गलत जानकारी के आधार पर किसी निर्दोष व्यक्ति और व्यक्ती विशेष पर अपने लेखों और समाचार के
माध्यम से मीडिया ट्रायल कर के समाज में उसे बदनाम करना सही है? हम यह क्यों भूल जाते हैं, कि हम लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का आधार लेकर, स्टुडियो में बैठ कर निरर्थक
बयानबाजी से चिल्ला चिल्ला कर निर्दोष लोगों पर खुलेआम अन्याय करते हैं? क्या हमारे द्वारा गलत समाचारों के कारण समाज में किसी के
स्थान को बर्बाद करने के लिए समाज में किसी को संदेह के कटघरे में खड़ा करने का
पाप नहीं कर रहे है? यह वही है जिसके बारे में पत्रकारों को सोचना चाहिए।
टी आर पी के लिए कुछ भी?
यहां
तक कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, ब्रेकिंग न्यूज के प्यारे नाम के तहत, TRP बढ़ाने
की होड़ में कही-सुनी सूचना के आधार पर भड़काऊ और उत्तेजक समाचार प्रकाशित किए
जाती है, ऐसा कहा जाता है। सबसे पहले, सबसे तेज,
और पुछता है.......! ऐसा स्टुडीओ में बैठ कर चिल्ला चिल्ला कर आम
पाठको को और वाचको को मोहित और प्रभावित किया जाता है| जीन पत्रकारों पर देश जोड़ने
के लिए जिम्मेदारी है। क्या वह लोकतंत्र के चौथे पवित्र स्तंभ को कलंकित नहीं कर
रहे हैं?
हम, पत्रकारों, समाचार पत्रों और समाचार
चैनलों पर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की विश्वसनीयता को बनाए रखने की जिम्मेदारी है।
यदि आप समय पर होश में नहीं आते हैं, तो क्या आपको बालशास्त्री
जाम्भेकर, डॉ.बाबासाहेब अम्बेडकर, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, लोकमान्य तिलक, अगरकर, एपीजे अब्दुल कलाम आदि का नाम लेने का नैतिक अधिकार
लेखक/संपादक: पत्रश्री पत्रकार मुजीब जमीनदार
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